जीने की कला - The art of living

जीने की कला

 

प्रत्येक मनुष्य अपने जन्म से पूर्व के एवं जन्म के बाद के प्रभावों के अनुसार अपनी इच्छा-आकांक्षाओं को धारण करता है। आनुवंशिकता, एवं राष्ट्रीयता, समाजिक और पारिवारिक विशिष्टताएँ, अभिरूचियाँ तथा आदतें प्रत्येक मनुष्य के जीवन को ढालती हैं। परन्तु प्रारम्भिक जीवन में हर जगह के बच्चे प्राय: एक जैसे ही होते हैं। यीशु ने कहा था, "मेरे पास छोटे बच्चों को आने दो, और उन्हें आने से रोको नहीं : क्योंकि ईश्वर का साम्राज्य इनके जैसों का ही है।"* दिव्यता ही संसार भर के सभी बच्चों को राष्ट्रीयता है, परन्तु जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं, और परिवार व समाज के विशेष लक्षण उन पर अपना प्रभाव डालने लग जाते हैं, तो बच्चे अपने राष्ट्रीय और अपने जातीय लक्षणों को व्यक्त करने लगते हैं।

ईश्वर ने विभिन्न सभ्यताओं, जातियों और व्यक्तिगत मनोवृत्तियों में विविध समेकनों में सत्य की अभिव्यक्ति की है। इस विविधता के द्वारा उसने मानव की क्षमता के अनेकविध रूपों का चित्रण हमारे सामने प्रस्तुत किया है। मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह इस विविधता में से उन गुणों को चुने जो सर्वोत्तम हों तथा अपने अन्तर में, अपने राष्ट्र में और संसार में इनको संवर्धित करे। महान लोग और संत ऐसा ही करते हैं। वे सत्य के विश्वजनीन सिद्धान्तों को, जो शाश्वत हैं, अपने जीवन में प्रदर्शित करने में अपने समय से सैकड़ों वर्ष आगे होते हैं। ये सिद्धान्त जीने की वास्तविक कला के सार हैं और मानव जाति की सफलता और सुःख के लिए प्रयोज्य एवं नितान्त आवश्यक हैं। विभिन्न राष्ट्रों, जातियों और धर्मों के लोगों के बीच की भिन्नताएँ, लोगों में आपसी विभाजन पैदा करने की अपेक्षा, अच्छे गुणों व पद्धतियों के चयन के लिए तुलनात्मक आधार बनने के लिए प्रयोग में आनी चाहिएँ, ताकि इससे आदर्श मानव और आदर्श संसार का विकास किया जा सके।

वर्तमान में सभी राष्ट्रों में से भारत व अमेरिका क्रमशः आध्यात्मिक एवं विचक्षण भौतिक सभ्यताओं की पराकाष्टा का प्रतिनिधित्व करते हैं। भारत एवं अन्य पूर्वी राष्ट्रों ने उच्चतमकोटि के महापुरुषों को जन्म दिया, जैसे यीशु

और गांधी; वहीं दूसरी ओर अमेरिका ने महानतम व्यापारियों और व्यावहारिक वैज्ञानिकों को उत्पन्न किया, जैसे हैनरी फोर्ड एवं टॉमस एडिसन। उक्त महापुरुषों के उद्धरित जीवनों में व्यक्त विचक्षण आध्यात्मिक गुणों और कुशल भौतिक गुणों का समन्वय एक ऐसी जीवन की कला को प्रस्तुत कर सकता है, जो प्रत्येक राष्ट्र में शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक, भौतिक, सामाजिक व आध्यात्मिक रूप से उच्चतमकोटि के सर्वोन्मुख मानव का निर्माण कर सके।

एक-पक्षीय राष्ट्रीय विशेषताओं की अपेक्षा, विश्व के सभी राष्ट्रों व सभी महापुरुषों के सर्वोन्मुखी जीवन के शाश्वत सिद्धान्तों को चुनना महत्वपूर्ण है। केवल ऐसे सिद्धान्तों को न चुनें जो आध्यात्मिक पक्ष के मूल्य पर केवल भौतिक पक्ष का ही अथवा इसके विपरीत भौतिक पक्ष के मूल्य पर आध्यात्मिक पक्ष का ही विकास करें; ऐसे सिद्धान्तों को अपनाएँ जो सन्तुलित शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक गुणों से सम्पन्न महामानव का समानता व समन्वय से विकास करें।

एकसमान विकास के लिए व्यावहारिक पद्धतियाँ निम्नलिखित कुछ व्यावहारिक पद्धतियाँ शरीर, मन और आत्मा को समान रूप से विकसित करने के लिए उपयुक्त हैं:

अपने दैनिक खान-पान में दूध, एवं दूध से बने अन्य पदार्थ, और अच्छी मात्रा में कच्ची सब्जियाँ तथा ताजा फल सम्मिलित कीजिए; संतरे के रस का एक बड़ा गिलास बारीक पिसे सूखे मेवे मिलाकर पीएँ। जहाँ तक समम्भव हो माँस का प्रयोग कम करें; गाय और सुअर का मांस तो बिल्कुल ही न लें। आहार-विज्ञान से सम्बन्धित कोई अच्छी आधनिक पस्तक पढें और उसे व्यवहार में लाएँ।

सप्ताह में एक दिन केवल संतरे के रस पर उपवास करें. और डॉक्टर के परामर्श अनुसार उचित अकृत्रिम विरेचक (natural laxative) का प्रयोग करें।



प्रतिदिन सुबह और शाम, गहन एकाग्रता के साथ द्रुत गति से टहलें, दौड़ें, अथवा अपनी शरीर संरचना के अनुसार जितनी तीव्रता से हो सके, किसी प्रकार का कोई व्यायाम तब तक करें जब तक आपको पसीना न आ जाए।

भगवद्गीता या बाइबिल से कुछ प्रेरणादायक परिच्छेद पढ़ें और उस पर चिन्तन करें।

शेक्सपियर एवं अन्य उत्कृष्ट साहित्य पढ़ें, और रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र, शरीर विज्ञान, पौर्वात्य एवं पाश्चात्य दर्शन का इतिहास, धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन, नीतिशास्त्र, और मनोविज्ञान जैसे अन्य विषयों की व्यावहारिक पुस्तकों से यथोचित भाग लेकर पढ़ें। घटिया एवं निम्नस्तरीय साहित्य पढ़ने में अपना समय नष्ट न करें। भरोसा करने योग्य कोई स्वास्थ्य सम्बन्धी पत्र-पत्रिका पढ़ें और प्रेरणादायक आध्यात्मिक पत्रिका पढ़ें। समाचारपत्र पढ़ते समय अपने पठन में केवल कॉमिक एवं अपराध-घोटालों के समाचार नहीं बल्कि सम्पादकीय तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी लेख सम्मिलित करें।

विभिन्न मन्दिरों व चर्चों में जाएँ जैसे प्रोटेस्टेन्ट, कैथोलिक, बौद्ध, यहूदी, हिन्दु, इत्यादि, ताकि आप सभी धर्मों को बेहतर समझ सकें और आपमें उनके प्रति आदरभाव विकसित हो सके। इनमें से प्रत्येक स्थान को अपने ही ईश्वर के मन्दिर के रूप में देखें।

न केवल मानव निर्मित मन्दिरों में ही ईश्वर का आदर करें, बल्कि अपने अन्तर के शान्त मन्दिर में उसकी आराधना करना और उससे तादात्म्य स्थापित करना सीखें। योगदा सत्संग सोसाइटी (सेल्फ-रियलाइज़ेशन फैलोशिप) के महान गुरुओं द्वारा सिखाई गई वैज्ञानिक पद्धतियों का अनुसरण करते हुए एक घण्टा सुबह एवं एक घण्टा शाम को ध्यान करें। अंधे और बिना परखे हुए विश्वासों एवं धार्मिक मतों के वनों में न भटक जाएँ; आत्म-साक्षात्कार के राजमार्ग पर चलें जो आपको द्रुत-गति से ईश्वर की ओर ले जाएगा।

इन्द्रियों के दास न बनें। वे भौतिक इच्छाओं के साथ आपको बाँधने के लिए नहीं, बल्कि आपको ईश्वर की झलक देने वाले अच्छे अनुभव प्रदान करने के लिए हैं।

उच्च कोटि के नाटक और चलचित्र चुन कर कभी-कभी देख सकते हैं।

परिवार, देश और सभी राष्ट्रों पर लागू होने वाले ईश्वर के दिव्य नियमों का पालन करें।

दया और समझदारी के साथ सत्य वचन बोलें, और जहाँ कहीं भी सत्य नज़र आए, उसका आदर करें।

अपने परिवार और देश के प्रति प्रेम का विस्तार करें ताकि आप उसमें सभी राष्ट्रों के लोगों के प्रति प्रेम और सेवा को सम्मिलित कर सकें। सभी लोगों में ईश्वर को देखें, चाहे वे किसी भी धर्म या जाति के हों।

विलासप्रिय आदतों को दूर कर व्यय कम करें और बचत अधिक करें। अपनी आय से जितना अधिक सम्भव हो बचत करें ताकि आप उस बचत राशि के सूद पर, बिना मूलधन को हाथ लगाए, आंशिक रूप से जीवन निर्वाह कर सकें।

जीवन को चार चरणों में बटा हुआ देखें। प्रत्येक चरण के दौरान मुख्य एकाग्रता उस कार्य की क्षमता का विकास करने में होनी चाहिए जो जीवन के उस भाग के लिए उपयुक्त है।

(१) ५ वर्ष से २५ वर्ष की आय तक: बच्चे को सघन चारित्रिक प्रशिक्षण मिलना चाहिए और आध्यात्मिक आदर्श व आदतें उसके चरित्र में निविष्ट हो जाने चाहिए। जैसे-जैसे वह वयस्कता की ओर बढ़े उसे सामान्य शिक्षा मिलनी चाहिए, अध्ययन और प्रेक्षण द्वारा कार्य-कुशलता सिखाई जानी चाहिए, और जिस कार्य में उसकी रूचि हो उसमें विशेष प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

(२) २५ से ४० वर्ष की आयु तकः एक वयस्क के रूप में व्यक्ति को संसार और परिवार के प्रति कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए और साथ ही साथ आध्यात्मिक सन्तुलन को बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए।

(३) ४० से ५० वर्ष तक की आयु तकः इस आयु में व्यक्ति को अधिक शांत रहना चाहिए, प्रेरणादायक पुस्तकें पढ़नी चाहिए और कला एवं विज्ञान में हो रही उन्नति से अवगत रहना चाहिए, और अधिक समय ध्यान में लगाना चाहिए।

* मनुष्य के जीवन को चार भागों में बाँटने की यह प्राचीन वौदिक सिद्धान्त की सार्वजनिक पद्यति है, जो चार आश्रमों के नाम से जानी जाती है। (१) विद्यार्थियों के लिए शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक शिक्षा (ब्रह्मचर्य)। (२) पारिवारिक अथवा सांसारिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह (गृहस्थ)। (३) एकान्तवास अथवा किसी आश्रम में रह कर ईश-चिन्तन और आध्यात्मिक लक्ष्य हेतु संसार से निवृत्ति (वानप्रस्थ)। (४) सभी सांसारिक बन्धनों का पूर्ण रूप से बाहरी एवं आन्तरिक त्याग (संन्यास)। यद्यपि पूर्ण त्याग सामान्यत: चौथा आश्रम था, तथापि यह उसी चरण के लिए ही निश्चित नहीं था, बल्कि जो ईश्वर के लिए तीन लालसा रखते थे उनके लिए जीवन में कभी भी विवेचित था।
इन चार आश्रमों के अनुसरण द्वारा मनुष्य को आदर्श जीवन पद्धति व उचित व्यवहार करना सिखाया जाता था; उसे अपनी भौतिक आकांक्षाओं और उत्तरदायित्वों की पूर्ति का अव सर प्रदान किया जाता था; अपने आध्यात्मिक जीवन पर विचार करने और आत्मानुभूति के लिए अधिक प्रयास करने का समय दिया जाता था; और तब उसे प्रोत्साहित किया जाता था कि वह अपना जीवन और अपना सब कुछ पुनः इश्वर को अर्पित कर दे, जिससे जीवन के सभी उपहार, यहाँ तक कि जीवन स्वयं प्राप्त हुए हैं।

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(४) ५० वर्ष की आयु के बादः जीवन के इस अन्तिम भाग में व्यक्ति को अधिकाधिक समय ध्यान में रहते हुए व्यतीत करना चाहिए; और इससे प्राप्त ज्ञान और आध्यात्मिकता के द्वारा लोगों की सामाजिक और आध्यात्मिक सेवा करनी चाहिए।

सक्रियता में शांत और शांति में सक्रिय रहें संक्षेप में, हर समय केवल धन कमाने के बारे में ही न सोचते रहें। व्यायाम करें, पढ़ें, ध्यान करें, ईश्वर से प्रेम करें तथा सदा ही शांति के साथ कार्य करें। ध्यान के आध्यात्मिक कार्य से प्राप्त शान्ति को अपने दैनिक क्रिया-कलापों में बनाए रखते हुए सक्रियता में शांत रहना और शांति में सक्रिय रहना सीखें। गीता में भगवान श्रीकृष्ण उपदेश देते हैं, “योग में निमग्न रहते हुए, सभी कार्यों को (उनके फल से) आसक्ति रहित रह कर पूरा करो। (सभी कार्यों को पूरा करते हुए) सफलता और असफलता के प्रति विरक्त रहो। कार्य की सभी अवस्थाओं (सफलता व असफलता) में मानसिक समभाव योग कहलाता है।"*

ईश्वर के पितृत्व में सच्चे भ्रातृत्व के लिए इस प्रार्थना में मेरे साथ भाग लें:

"हे परमपिता, “संयुक्त राज्य विश्व"(United States of the World) के निर्माण में हमारी सहायता करें, आपका सत्य जिसका नेता व राष्ट्रपति हो, जो प्रेममय भाईचारे में रहने में हमारा मार्गदर्शन करे, और हमें शरीर, मन व आत्मा का परिपूर्ण विकास करने के लिए प्रेरित करे ताकि दिव्य शांति का साम्राज्य, जो हमारे भीतर है, हमारे दैनिक जीवन के क्रियाकलापों में प्रकट हो सके।

हमें सभी प्रकार से स्वस्थ, कार्यकुशल, एवं पूर्ण बनाएँ ताकि हम संसार के सभी भाईयों को प्रेरणा दे सकें कि वे आपकी महान सन्तान होने के नाते अपने वास्तविक स्वरूप को प्रकट कर सकें।

"हे परमपिता, आपका प्रेम हमारी भक्ति-वेदी पर सदा देदीप्यमान रहे, और हमें आशीर्वाद दें कि आपका यह प्रेम हम सभी हृदयों में प्रज्जवलित कर सकें।

यदि आप शांति के अन्तर्मन्दिर में ईश्वर के साथ सम्पर्क स्थापित कर लें और उनके साथ एकाकार हो जाएँ तो आप जीने की सच्ची कला में पारंगत हो जाएँगे। तब उत्तम स्वास्थ्य, समृद्धि, प्रज्ञा, प्रेम और आनन्द का वरदान आपको प्राप्त हो जाएगा।

 

 

 

 

 


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