उत्तर वैदिक काल में यज्ञ अनुष्ठान एवं
कर्मकांडीय गतिविधियों में वृद्धि हुई। अनुष्ठानों एवं कर्मकांडों पर बलदिये जाने
के फलस्वरूप इसके विरू) में एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया हुई जिसे आरण्यक तथा
उपन्शिद् के माध्यम से उठाया गया। भौतिक सुखों की प्राप्ति ही धर्म का उद्देश्य इस
काल में भी बना रहा।
۞ लोगों को पंच महायज्ञ करने के भी धार्मिक आदेश
थे-
1ण् ब्रह्म यज्ञ - अध्ययन एवं अध्यापन।
2ण् देव यज्ञ - होम कर देवताओं की स्तुति।
3ण् पितृ यज्ञ - पितरों को तर्पण करना।
4ण् मनुष्य यज्ञ - अतिथि सत्कार तथा मनुष्य के
कलयाण की
कामना
5ण् भूत यज्ञ - जीवधारियों का पालन।
۞ यज्ञों में पशु बलि को प्राथमिकता दी गयी तथा
गाय,
कपड़ा, सोना, घोड़ा आदि दान
स्वरूप दिए जाते थे।
۞ शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख आया है कि अश्वमेघ
यज्ञ में पुरोहित को उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम इन सभी
दिशाओं का दान कर देना चाहिए।
۞ तीन ऋण थे-देव ऋण (देवताओं तथा
भैतिक शक्तियों के प्रति दायित्वद्धए ऋषि ऋण और पितृ ऋण (पूर्वजों के
प्रति दायित्वद्ध।
۞ उत्तर वैदिक काल में सृष्टिकत्र्ता के रूप में
ब्रह्मा, पालनकर्ता
या संरक्षणकर्ता के रूप में विष्णु तथा पशुओं के देवता रुद्र सर्वप्रथम हो गये।
۞ इन्द्र, अग्नि, वरुण तथा अन्य ऋग्वैदिक
देवताओं का महत्व कम गया। प्रमुख देवता के रूप में प्रजापति स्थापित हो गया।
प्रजापति को हिरण्यगर्भ भी कहा जाता था।
۞ अथर्ववेद में लोक धर्म की झांकी मिलती है।
इन्द्र द्वारा नागों एवं राक्षसों के वध का उल्लेख मिलता है।
۞ अश्विन को कृषि रक्षक का देवता तथा सवितृ को
नये मकान बनाने वाला देवता माना जाने लगा।
۞ प्रतीकों की पूजा का आरंभ भी इसी काल में हुआ।
۞ पूषण् जो गोरक्षक थे, बाद में
शूद्रों के भी देवता बन गये।
۞ उत्तरवैदिक काल के अंतिम दौर में यज्ञ, पशु बलि तथा
कर्मकांड के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया हुई। उपनिषद् इन्हीं भावनाओं की अभिव्यक्ति
है जिसमें यज्ञ ओर कर्मकांड के स्थान पर ज्ञान को मुक्ति का मार्ग बतलाया गया है।
۞ आर्यों ने मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म से
संबंधित विचारों को ग्रहण किया। वृहदारण्यक उपनिषद में पहली बार पुनर्जन्म के
सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की गयी।
۞ त्रिमूर्ति का संकल्पना मैत्रोयी उपनिषद में
आया।
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