प्रेम की रात

प्रेम की रात

 

तारीख : १७ वीं सदी का अंतिम चरण

स्थान : सलूम्बर, मेवाड़, राजस्थान

 

पृष्ठभूमि

राजपूत चुण्डावत ने हाल ही में रानी हाडा से विवाह किया था। चुण्डावत अपनी तलवारबाजी के लिए प्रसिद्ध थे और रानी हाड़ा अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध थीं। यह जोड़ी जैसे स्वर्ग में ही बनी थी लेकिन उस समय औरंगज़ेब का शासन था जिसके कारण धरती पर शान्ति मुश्किल थी। विवाह के तुरंत बाद चुण्डावत को युद्ध के लिए जाना पड़ा और वे युद्ध में विजयी होकर वापस आए। अब उनकी ख़ुशी की रात आने वाली थी।

जिसका लम्बे समय से इंतज़ार था - अपनी जीत की ख़ुशी और पहले मिलन के उत्सव का समय नजदीक आ रहा था। इंतज़ार बेशक बहुत लम्बा था। राजपूत ने अनगिनत लड़ाईयां लड़ी थीं। लेकिन कभी भी अपने दिल को इस तरह से धड़कते हुए नहीं पाया था। मुंह से शब्द बाहर नहीं आ रहे थे। उन्होंने ऐसी उत्तेजना पहले कभी नहीं महसूस की थी।

रानी भी ऐसा ही महसूस कर रही थीं। उसका नायक, उसका सपना, उसकी उम्मीदें, उसका प्यार उसकी आंखों के सामने था। उनकी आंखें मुंद गईं। बहुत देर तक राजपूत और रानी एक दूसरे के सामने मूर्ती बने खड़े रहे। क्या ये एक स्वप्न था या उनका मिलन एक जीता जागता सत्य था?

उन्हें पता ही नहीं चला कि कब वे एक दूसरे की बांहों में समा गए। राजपूत ने धीरे से दुल्हन का चूंघट हटा दिया। दुल्हन ने राजपूत के शानदार चेहरे की एक झलक देखकर फिर से आंखें बंद कर लीं। वह और ज्यादा नज़दीक होती जा रही थी। धड़कनें और ज्यादा तेज होती गईं।

अचानक से दरवाजे पर जोर की दस्तक हुई। रानी ने फिर से अपना चूंघट ओढ़ लिया। राजपूत दरवाजा खोलने गए। वे अभी भी मदहोश थे। एक बुरी खबर थी। औरंगज़ेब ने फिर से हमला कर दिया था। वो बढ़ता चला आ रहा था। राजपूतों को तुरंत युद्धक्षेत्र की तरफ जाना पड़ेगा।

चुण्डावत ने अपने नौकर से कहा कि वो उनके घोड़े को तैयार करे और दूसरे योद्धाओं को इकठ्ठा करे तब तक वे नीचे आ रहे हैं। नौकर लौट गया। राजपूत ने दरवाजा बंद किया और वे रानी के पास आए।

राजपूत :मुझे जाना पड़ेगा।रानी :मैंने सब सुन लिया है। आपको तुरंत अभी जाना चाहिए, माता बुला रही हैं।

राजपूत (गहरी सांस लेकर) :हां मैं चला जाऊंगा। मेरे जाने से पहले आओ कुछ पल साथ बिता लें।

रानी:मैं पूर्ण रूप से आपकी हूं, स्वामी। लेकिन ये धरती माता की पुकार है। मैं पल भर के लिए भी एक पुत्र को अपनी मां से अलग करने का आरोप स्वयं पर नहीं लूंगी। आपको तुरंत जाना चाहिए।"

राजपूत :तुम इतनी कठोर कैसे हो सकती हो? हमने इस रात के लिए कितने लम्बे समय से इंतजार किया है। मुझे कुछ पल अपने पास रहने दो।

रानी:मैं हमेशा आपके साथ हूं। प्रेम में भी और आपके कर्तव्य में तो और भी अधिक साथ हूं आपके। मुझे मेरे धर्म का पालन करने दीजिए। लाइये मैं आपके माथे पर तिलक लगा दं।

रानी ने एक चाकू निकाला और अपने अंगूठे को काटकर अपने पति के माथे पर रक्त का तिलक लगाया। उसने आंखें बंद करके कुछ प्रार्थना बुदबुदाई।

राजपूत ने बिस्तर की बगल में आरती की थाली देखी। रानी ने इस आवश्यकता के लिए पहले से ही तैयारी कर रखी थी। उसने आरती उतारी और बोलीमां दुर्गा की कृपा से मैं हमेशा आप पर गर्व कर सकू।"

राजपूत ने अपनी तलवार को पीछे बांधा और वे दरवाजे की तरफ बढ़े। कुछ देर के लिए रुके। पीछे मुड़कर अपनी पत्नी की तरफ कुछ देर देखा, दरवाजा खोला और

राजपूत सीढ़ियों से नीचे आए। घोडा तैयार था, सेना तैयार थी लेकिन उनका दिल अभी तैयार नहीं था। वे अभी भी रानी के सपनों में खोए हुए थे। उन्होंने एक दासी को बुलायारानी के पास जाओ और उनसे कहो कि अपनी कोई निशानी भेजें। मैं उनके साथ समय नहीं बिता पाया लेकिन उनकी निशानी के सहारे उनकी याद मेरे साथ रहेगी।"

दासी ऊपर गई।

 

परिस्थिति

इंतज़ार लम्बा होता गया। दासी अभी तक लौटी नहीं। रानी शायद यह सोच रही होगी कि सबसे अच्छी यादगार क्या होगी? क्या हो सकता है?

मैंने बेकार में उसे भ्रमित कर दिया। मुझे दासी को भेजने के बजाए खुद जाना चाहिए था।

नियति कितनी क्रूर है। महीनों से मैं लड़ रहा हूं। शादी भी जल्दबाजी में की और अब यह युद्ध और आज फिर! इस युद्ध के बाद मैं कुछ समय के लिए सेवानिवृत होकर रानी के साथ रहूंगा। लेकिन वो इतना समय क्यों ले रही है? वो इतनी सुन्दर है। आज वह भी मेरी ही तरह उत्साहित थी। एक अच्छी पत्नी होने के नाते उसने मुझे जाने दिया लेकिन मुझे उसके साथ थोड़ा समय और बिताना चाहिए था और ऐसा अन्याय नहीं करना चाहीए था। मुझे उसके साथ कुछ देर और ठहरना चाहिए था और कल सुबह जाना चाहिए था। मैं भी कितना मूर्ख हूं। आज रात यदि मैं उसके साथ रहता तो कोई आसमान नहीं टूट पड़ता। मैंने उसकी भावनाओं के बारे में सोचा ही नहीं।उनके दिमाग में तरह-तरह के विचार घुमड़ रहे थे।

उन्होंने देखा कि दासी वापस आ रही थी। उसके साथ थाल में बड़ी सी यादगार कपडे से ढंकी हुई थी। यादगार के साथ एक पत्र भी था।

 


आगे क्या हुआ?

दासी वह थाल राजपूत के पास ले आई। राजपूत ने वह चिट्ठी उठाई और पढ़ना शुरू किया।

"मेरे प्राणनाथ, आप मेरे गौरव हैं लेकिन आज मैं भयभीत हूं और ग्लानि महसूस कर रही हूं। मैं भांप सकती हूं कि आप युद्ध की बजाए मेरे बारे में सोच रहे हैं।

जबकि धरती मां आपको बुला रही है। राजपूतानी जो अपने पति से उसकी बहादुरी छीन ले वह पाप की भागीदार है। इसलिए मैं आपको ऐसी यादगार भेज रही हूं जो आपके अंदर के सर्वश्रेष्ठ योद्धा को जगा देगी। एक यादगार जो आपको अभूतपूर्व बहादुरी से लड़ने की प्रेरणा देगी और धरती माता जालिम आक्रमणकारियों से बचेगी।राजपूत हैरान थे। कांपते हाथों से उन्होंने थाल में रखी उस निशानी पर से कपड़े को हटाया। रानी ने अपना सिर काटकर भेज दिया था।

 

और तब

राजपूत ने उस कटे हुए शीश को अपने शरीर से बांधा और रणक्षेत्र की तरफ कूच कर गए । शत्रु की उम्मीद से पहले ही उस पर हमला कर दिया गया। ऐतिहासिक युद्ध हुआ। मुग़ल सेना ज्यादा देर तक नहीं टिक सकी और राजपूत की तलवार से गाजर मूली की तरह काटी गई। राजपूत सेना यहीं नहीं रुकी। वह और आगे बढ़ी और एक

और मुग़ल टुकड़ी की धज्जियां उड़ाईं और फिर एक के बाद एक मुग़ल टुकड़ी का सफाया होता गया। पूरे क्षेत्र से एक-एक मुग़ल सैनिक का सफाया कर दिया गया।

सब काम खत्म करके राजपूत नीचे बैठे, अपनी आंखें बंद कीं। अपने हाथ जोड़े, कुछ बुदबुदाए और उन्होंने अपना शीश काट दिया ताकि वो अपनी रानी के पास जा सकें।

 

परिणाम

इस युद्ध ने मुग़ल साम्रज्य की रीढ़ तोड़ दी। राजपूतों के नायक दुर्गा दास राठौर ने मुग़लों की सत्ता को छिन्न-भिन्न कर दिया और उनके शाही परिवार को बंदी बना लिया। इस बात से औरंगज़ेब के अपने बच्चे भी विद्रोही हो गए। देश के दूसरे हिस्सों में भी मराठा, सिख, जाट, अहोम इत्यादि मुग़ल शासन के बचे-खुचे अवशेषों को उखाड़ रहे थे। कुछ साल के भीतर ही पूरी मुग़ल सत्ता ध्वस्त हो गई। आज आपको मुग़लों का कोई प्रतिनिधि नहीं दिखाई देता। केवल कुछ भिखारी जो कलकत्ता, मुम्बई और दूसरी जगहों पर अकबर और औरंगज़ेब की पेंटिंग लिए हुए सबूत दिखाते रहते हैं।

रानी की उस विलक्षण रूमानी यादगार ने इतिहास की धारा को हमेशा के लिए मोड़ दिया।

 

अब क्या करना है

अगर आपकी आंखों में कुछ नमी है तो इसे आतंक के खिलाफ़ लडाई के लिए बचाकर रखिए।

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